People and objects have names and forms in this world. But none of these are absolute truths; they are all transient. And a worldly person or thing does not reside in their name. For example, if we have a relative living in England, and we sit here and chant their name, meditate on them, and even cry for them until death, it will make no difference. This is because the one we are thinking of has no idea that someone is chanting their name, meditating on them, and crying for them until death.
Nāmnāmakāri bahudhā nij sarva śaktistatrārpitā niyamitaḥ smaraṇe na kālaḥ. (Chaitanya Mahaprabhu)
Mahaprabhu Ji said that God showered such an immense grace on us, the greatest among graces that only God could do. God knows that He will not appear before us directly. Also, since our mind is material, it cannot meditate on His Divine form. Our material intellect cannot comprehend Him either. Therefore, out of kindness, He seated Himself in His name. Even in the world, attachment and hatred arise in us from repeated thinking. People even commit suicide due to repeated wrong thoughts. Similarly, we must repeatedly contemplate and strengthen our faith that God is seated in His name. When we say the name 'Radhey' with this conviction, Divine bliss will flow through every pore of our being. We must make our spiritual earnings in this manner.
If you lose faith, don't worry. Bring in the faith again through repeated contemplation. We have practiced thousands of times to turn over in bed or stand up once. Everything happens through practice. In the same way, this will also happen through practice.
Just as we realize the 'I' at all times and places, we should constantly feel that God is seated in our heart, noting our every 'thought' at all times. Then, we do not need to do anything else; we need no other devotional practice. By realizing God within us, we can never feel any tension. When this feeling arises that the Lord of infinite universes is seated in my heart, we will remain intoxicated with bliss.
No Saint has the authority to give us a magic potion or bless us with Divine bliss - we must do the devotional practice ourselves. It is all a matter of the mind; you may never speak anything with your tongue and never walk to a temple with your feet. All you have to do is contemplate with the mind. Whoever realized this, accepted it, and put it into practice crossed over the ocean of maya. Do not procrastinate! Repeatedly practice the above two principles. Another thing to keep in mind is that if you don't bring these into practice, the world will enter your mind and ruin it.
Without regular practice, worldly influences easily enter the mind and corrupt it. You may be sitting peacefully when someone approaches and utters just one provocative sentence. Suddenly, your brow furrows, and emotions arise within. These feelings evolve into rumination, and you begin to think, "How dare they say this to me? Don't they know the position I hold?" However, it's crucial to remember that upon death, all worldly positions cease to matter. You forget that you have committed countless sins across innumerable births. The worldly atmosphere is dangerous. Therefore, if you consistently protect yourself from its negative influences while simultaneously moving towards God, you will gradually progress closer to your ultimate goal.
1. संसार में हमारे और जड़ पदार्थों के भी नाम और रूप हैं। लेकिन ये सब सत्य नहीं हैं, नश्वर हैं। और इन नामों में नामी का वास नहीं है। उदाहरण के लिए अगर हमारा कोई नातेदार इंग्लैंड में है। और हम यहाँ बैठकर उसके नाम का जप करें, उसका ध्यान करें और उसके लिए आँसू बहाकर मर भी जाएँ, तो भी कोई लाभ नहीं, क्योंकि जिसके बारे में हम सोच रहे हैं उसको पता ही नहीं चलता कि कौन हमारा नाम ले रहा है, ध्यान कर रहा है, रोकर मर गया।
लेकिन नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्तिस्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः (चैतन्य महाप्रभु)
महाप्रभु जी ने कहा था कि भगवान् ने इतनी बड़ी कृपा की है, जितनी बड़ी कृपा भगवान् ही कर सकते हैं। भगवान् हमारे सामने पहले आएँगे नहीं। वे जानते हैं कि हमारा मन मायिक है, उनका दिव्य रूपध्यान नहीं कर सकता, और हमारी बुद्धि उनको समझ नहीं सकती। इसलिए कृपा करके वे स्वयं अपने नाम में बैठ गए हैं। संसार में भी राग-द्वेष बार-बार सोचने से होता है। बार बार गलत चिंतन से लोग आत्महत्या भी कर लेते हैं। इसलिए बार-बार विचार करके दृढ़ विश्वास करना चाहिए कि भगवान् के नाम में भगवान् बैठे हैं। इस विश्वास से जब हम राधे कहेंगे तो रोम-रोम से रस निकलेगा। अपनी कमाई बनाओ।
अगर विश्वास छूट जाए, कोई बात नहीं फिर लाओ, फिर चिंतन करो। एक बार करवट बदलने के लिए और एक बार खड़े होने के लिए भी हमने हज़ारों बार परिश्रम किया है। अभ्यास से ही सब कुछ हुआ है। इसी तरह यह भी अभ्यास से ही होगा।
2.जैसे हम 'मैं' को हर समय, हर जगह रियलाइज़ करते हैं, वैसे ही हमको हर समय, हर जगह रियलाइज़ करना चाहिये कि भगवान् हमारे हृदय में बैठकर हमारे 'विचार' नोट करते हैं। फिर हमको कुछ करना ही नहीं है, कोई साधना नहीं करना। इससे हमें कभी टेंशन भी नहीं हो सकती। जब ये फीलिंग हो जाये कि अनंतकोटि ब्रह्माण्ड नायक मेरे हृदय में बैठे हैं, हम आनंद में दीवाने रहेंगे।
किसी संत को ये अधिकार नहीं हैं कि हमें कुछ घोलकर पिला दें या आशीर्वाद दे दें - साधना तो हमको स्वयं करनी ही पड़ेगी। सारा काम मन का है - कभी रसना से कुछ न बोलो, पैरों से किसी मंदिर में न जाओ - बस मन से चिंतन करना है। जिसने इसको जान लिया, मान लिया, और अभ्यास में लाया - वो पार हो गया। उधार नहीं करना। इसलिए बार बार इन दोनों बातों का रोज़ अभ्यास करना चाहिए।
अभ्यास न करने से मन में संसार आकर इसको बिगाड़ देगा। अच्छे खासे बैठे हैं, और किसी ने एक वाक्य बोल दिया तो भौंहें सिकोड़ने लगते हैं और फीलिंग हो जाती है। और फीलिंग चिंतन में बदल जाती है और ये सोचने लगते हैं कि उसने मुझे ये कहा, क्या समझते हैं मेरी ये पोज़िशन है। मरने पर सब पोज़िशन खतम हो जाएगी। ये भूल जाते हैं कि हम अनंत जन्म के पापात्मा हैं। संसार सम्बन्धी एटमॉस्फियर बड़ा भयानक है। इससे बचते भी रहो और भगवान् की ओर चलते भी रहो तो धीरे-धीरे हिसाब बैठ जाएगा।