Jagadguru Aadesh: Remembrance is most important. मन का स्मरण ही प्रमुख है
Very few people truly understand the meaning of words such as bhajan, devotion, and worship. In our country, every household has idols (murtis), and elaborate religious ceremonies are organized by followers of different faiths, with many people singing kirtans, too. However, everything is going wrong because people don't understand the answers to two questions:
Q. 1) Who is the one doing devotion?
Q. 2) What will you gain from doing devotion? They do not understand this.
If we do devotion after understanding these two key points, there will be no need for military or police in the country, as there will be no crime or corruption. So,
1) Whether it is the Vedas, the Quran, or the Bible, in our country, people do a lot of chanting and worship using the physical senses. But the one who practices devotion is the mind. Bhajan, bhakti, and similar terms are meant only for the mind. In the Bhagavad Gita, Lord Krishna says, 'Ananyachetāḥ satataṃ yo māṃ 'smarati' nityaśhaḥ। tasyāhaṃ sulabhaḥ pārth nityayuktasya yoginaḥ॥', In other words, " O Arjun! The one who remembers me exclusively, at all times, can easily attain Me,"
2) Since eternity: i) The mind is faced away from Shree Krishna, so, ii) it is bound by maya, so iii) it performs both good and bad actions, so iv) it considers itself as the body, v) the mind has become very impure, and vi) it has forgotten God. So, we have to purify the mind. It is impossible to see, know, or attain God because our senses, mind, and intellect are material, and God, on the other hand, is Divine. To know God, one needs His grace. But whom can he grace? The recipient of grace is the mind, and God can bestow His grace on it only when it is pure. Therefore, the goal of devotion is the purification of the mind.
So, devotion has to be done by the mind in order to purify the mind. We don't understand these two points properly, which is why our mind is attached to the world, and we do devotion using the physical senses. No matter how often we chant 'Ram-Ram' or 'Shyam-Shyam,' we will attain the one to whom our mind is attached after death. Mind alone is the cause of bondage as well as liberation. Hence, remove the desire for the world, heavenly abodes, or even moksh, i.e., liberation, from the mind. Stop thinking that you can get happiness in the world. Bring Radha-Krishna into your mind because they are pure. The mind will become purified by bringing them into your mind and shedding tears with a deep yearning to meet them. We must do this ourselves - neither the Guru nor God can do it on our behalf.
Shree Maharaj Ji says, "O mind, remember Radharaman. And do not remember Narayan, who resides in Vaikunth, or Shree Krishna of Dwarika or Mathura. Remember Shree Krishna of Vrindavan, whose mind forever remains engrossed in Shree Radha."
भजन, भक्ति, उपासना, आदि शब्दों का अर्थ बहुत कम लोग समझते हैं। हमारे देश में घर-घर में मूर्तियाँ हैं, अलग-अलग धर्मावलम्बियों में बड़े-बड़े आयोजन किये जाते हैं, बहुत भजन होता है, लेकिन सब गलत हो रहा है। ये इसलिए है क्योंकिं वो इन दो प्रश्नों के उत्तर नहीं समझते -
प्रश्न 1) भजन या उपासना करने वाला कौन है ?
प्रश्न 2) उपासना करने से क्या मिलेगा ? ये नहीं समझते।
ये दो बात समझ कर भजन करने से देश में न कोई मिलिट्री की ज़रूरत है न पुलिस की। कोई गलत काम या घोटाला होगा ही नहीं। तो -
1) चाहे वेदों का हो, कुरान का हो, चाहे बाइबिल का हो, हमारे देश में 'इन्द्रियों' से बहुत पाठ होता है। लेकिन भजन करने वाला है 'मन'। भजन, भक्ति जो कुछ शब्द है, मन के लिए है। गीता में भगवान् कहते हैं - 'अनन्यचेताः सततं यो मां 'स्मरति' नित्यशः। तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥' यानी निरन्तर मेरा 'स्मरण' करो तो मैं बड़े आसानी से मिल जाता हूँ, अर्जुन!
2) अनादिकाल से - i) श्रीकृष्ण से मन बहिर्मुख है, इसलिए ii) वो मायाबद्ध है, इसलिए iii) शुभाशुभ कर्म करता आ रहा है, और इसी से iv) वो अपने को देह मानता है, इसलिए v) मन बहुत गन्दा हो गया है और vi) भगवान् को भूला हुआ है। तो हमें मन को शुद्ध करना है। भगवान् को जानना, पाना, देखना सब असंभव है क्योंकि हमारे पास जो इन्द्रिय मन बुद्धि हैं वो सब मायिक हैं और भगवान् दिव्य हैं। भगवान् को जानने के लिए उनकी कृपा चाहिए। लेकिन कृपा किस पर हो? कृपा का पात्र मन है, और उसके निर्मल होने पर ही भगवान् कृपा कर सकते हैं। तो भक्ति का लक्ष्य अन्तःकरण की शुद्धि है।
तो भक्ति मन को करनी है। क्यों? अंतःकरण की शुद्धि के लिए करनी है। ये दो बात हम ढंग से नहीं समझते हैं, इसलिए मन का अटैचमेंट संसार में है और हम इन्द्रियों से भजन करते हैं। मन का अटैचमेंट जहाँ हैं, मरने के बाद उसी की प्राप्ति होगी, चाहे अनंत बार हम राम-राम, श्याम-श्याम बोलते रहें। बंधन और मोक्ष का कारण मन ही है। इसलिए मन से संसार, स्वर्ग, मोक्ष पर्यन्त की कामना को निकालो, संसार में सुख मानना बंद करो। मन में राधाकृष्ण को लाओ क्योंकि वे शुद्ध हैं। उनको अन्तःकरण में लाएँगे और उनके मिलन की व्याकुलता में आँसू बहाएँगे, तब मन शुद्ध होगा। ये हम को ही करना होगा, न गुरु करके दे सकते हैं न भगवान्।
श्री महाराज जी कह रहे हैं कि, ऐ 'मन', राधारमण का स्मरण कर । और वैकुण्ठवासी नारायण, या द्वारिका या मथुरा वाले श्रीकृष्ण का स्मरण न कर। वृन्दावन वाले राधारमण श्री कृष्ण का स्मरण कर।