By reflecting on and controlling respect and disrespect, we will progress much faster in our devotional practice. These are two enemies due to which we commit transgressions.
Respect - When someone praises us, even though we deny it outwardly, we feel happy from within. The reason for this is pride - we have tried to ensure no one speaks ill of us throughout our lives. We always make efforts to appear good in front of others instead of truly becoming good.
Disrespect - We feel bad when insulted because of our desire for respect. When someone insults us, we become angry - a fire rages within us. Anger destroys the intellect.
The reasons for these are -
We are under the influence of Maya, and hence, we are ignorant and identify with the body.
We are hungry for spiritual happiness and are willing to do anything to attain it.
Respect and disrespect will continue to happen in the world. Think in solitude - Which shortcoming do I not have (lust, anger, greed, etc.)? By doing this, you will become humble and will not feel as bad. We will have to win over the feelings of praise and humiliation.
When we step on the grass, it bends down. When we throw stones at a tree, it gives us fruits in return. We must become humbler than a blade of grass and more tolerant than a tree.
So far, we have considered the mind to be our friend. Now, our Guru has made us understand that it is, in fact, our true enemy - we will not listen to it anymore. It will take effort to act against the mind, but one can do it with practice.
मान और अपमान पर विचार करके कण्ट्रोल कर लें, तो हमारी साधना की गति तेज़ी से बढ़ेगी। ये दो दुश्मन हैं जिनकी वजह से हम अपराध करते हैं।
मान - हमें किसी के प्रसंशा करने पर, बाहर से मना करते हुए भी अंदर से खुशी की फीलिंग होती है। इसका कारण अहंकार है - हमने सारा जीवन यही कोशिश किया कि कोई हमारी बुराई न करे। अच्छा कहलवाने का प्रयास किया, अच्छा बनने का प्रयास नहीं किया।
अपमान - मान की इच्छा से अपमान की फीलिंग होती है। किसी के अपमान करते वक्त हमारे अंदर आग लग जाती हैं, क्रोध होता है। क्रोध से बुद्धि समाप्त हो जाती है।
इस के कारण:
हम मायाधीन हैं (अज्ञानी हैं - अपने को देह मानते हैं )
हमें दिव्यानंद की भूख है। इसको पाने के लिये हम 'सब कुछ' कर सकते हैं।
मान अपमान तो संसार में होता रहेगा। एकांत में सोचो - ऐसा कौन सा दोष है, जो हमारे अंदर नहीं है (काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि)? इससे दीनता आयेगी, फीलिंग कम होगी। मान अपमान को हराना होगा।
घास के ऊपर जब पैर रखते हैं तो वह झुक जाता है। पेड़ के ऊपर पत्थर फेंकते हैं तो वह फल देता है। तृण से बढ़कर दीन बनो और पेड़ से बढ़कर सहनशील बनो।
अभी तक हम मन को दोस्त मान रहे थे। अब गुरु ने समझा दिया कि वही तो हमारा असली दुश्मन है - अब उसका कहा हुआ नहीं मानेंगे। मन के खिलाफ करने में परिश्रम पड़ेगा, लेकिन अभ्यास से हो जायेगा।