Jagadguru Ādesh: Roopdhyan is the primary sadhana जगद्गुरु आदेश: भगवान् का रूपध्यान ही प्रमुख साधना है
Roopdhyan is the primary sadhana, though doing sankirtan along with it is good. However, we face a problem when doing roopdhyan. In place of God, due to past habits, wherever the mind is more attached, the mind goes there. When this happens repeatedly, one should neither become angry nor disappointed. Anger causes the downfall of the mind and makes it further agitated. We cannot do sadhana even if we get disappointed. Always remember that we have achieved everything we have learned in this world only after much practice, and we made many mistakes along the way. Hence, wherever the mind goes, let it go. It will stop in one place. Have Shyamsundar stand in that place. By repeatedly practicing this then the mind will find Shyamsundar following everywhere. Thus, it will not go towards the world. The mind will get attached to Shyamsundar.
When the mind can get attached to insentient things in this world, like tea or alcohol, why can it not get attached to God? He is an ocean of bliss. Repeatedly contemplate, ‘He alone is mine. Happiness is only in Him. He is the soul's sole relative. We are not the body. We are the soul. He alone is our well-wisher. The rest are all indirect enemies.’
When you repeatedly practice this and start experiencing the sweetness, you will move forward very easily.
भगवान् का रूपध्यान ही प्रमुख साधना है, उसके साथ संकीर्तन आदि भी अच्छा है। लेकिन रूपध्यान करते समय एक समस्या आती है। भगवान् के स्थान पर पुराने अभ्यासवश जिसके मन का जहाँ पहले अधिक अटैचमेंट है मन वहाँ चला जाता है। जब ऐसे बार बार होता है तो न क्रोध करना चाहिए, न निराश होना चाहिए। क्रोध से मन का पतन होता है, वह और बिगड़ जाता है। निराश होने पर भी साधना नहीं हो सकती (निरुत्साहस्य दीनस्य)। यह याद रखना चाहिये संसार में जितनी भी चीज़ हमने सीखे हैं, बहुत अभ्यास और गलतियां करने के बाद आयी हैं। इसलिये जहाँ कहीं ये मन जाये, जाने दो। जहाँ जाकर खड़ा होगा - उसी जगह अपने इष्ट देव श्याम सुन्दर को खड़ा कर दो। इस तरह बार-बार अभ्यास करते-करते जब मन देख लेगा कि ये हर जगह श्याम सुन्दर को ही खड़ा कर देते हैं, वह संसार की ओर नहीं जायेगा। मन का उन्हीं में अटैचमेंट हो जायेगा (मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते)।
जब मन का संसार के जड़ वस्तु जैसे चाय शराबादि में अटैचमेंट हो जाता है तो भगवान् में क्यों नहीं होगा? वो तो आनंद सिंधु हैं। बार बार सोचो - वे ही हमारे में हैं, उन्ही में आनंद हैं, आत्मा का नाता उन्हीं से है, हम शरीर नहीं हैं आत्मा हैं, वे ही हमारे हितैषी हैं, बाकी सब इनडाइरेक्ट हमारे शत्रु हैं। मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते।
जब इस तरह रस मिलने लगेगा आप बड़ी आसानी से आगे बढ़ते जायेंगे।