You have to understand and practice three things: 1. Humility 2. Roopdhyan 3. Chanting of the names, qualities, and pastimes of Shree Radha Krishna. Among these, you all practice only one - sankirtan (chanting the names, qualities, and pastimes). Doing kirtan just with the physical senses is akin to a lifeless body. Tears won't come without humility and roopdhyan. Chanting without tears is not true kirtan. That is merely repeating like a parrot. God does not even note the mere work of the senses.
1. Become humble: This is the first chapter in devotion. The more humble you become, the dearer you will be to God and Guru. Respect everyone. Consider others to be better than you. We have all the faults of maya, hence realize yourself to be fallen and sinful. Also, realize that Shree Krishna is within everyone. Do not have ill feelings towards others, such as considering them inferior, finding faults, or having feelings of disrespect. Do not have ill feelings even if the person is genuinely deplorable because this will further pollute your mind. By doing this, we will make God and Guru unhappy. Bring God and Guru into your mind; only they are pure. Through Them alone, our minds can be cleansed. Do not desire position, prestige/popularity, or appreciation on the spiritual path. The craving for reputation has caused the downfall of great yogis.
2. Roopdhyan: Bring God in front of you in your mind. The more the mind does roopdhyan of God, the closer you will get to God, and the closer God will come towards you.
3. Sankirtan of the name, quality, and pastimes of Shree Radha Krishna: Shed tears of love and call out to Them. This is the primary devotional practice, and this will not happen until we become humble.
Think before sleeping, when were the times that I was arrogant today? In what instances did my mind try to establish a reputation? This foolish mind is the one that is making us wander around in the 84 lakh forms. The ego is a dangerous enemy; save yourself from it and do sadhana. Also, ask for forgiveness and behave sweetly with the one for whom you have already developed ill feelings in such a way that the other person bows down. Practice this and see how much progress you make each day.
Pride is a very serious obstacle on the path of devotion to God. Pride is a dangerous enemy that prevents us from going closer to God. Instead of trying to look good in front of others, practice becoming good from within.
God is a friend to humble souls and purifies the sinful. Realize from within that I am a sinful soul from uncountable lifetimes. We have all the faults within us. We have nothing that we can be proud of; hence, don't feel bad about something someone speaks against you. ‘Nindak niyare rakhiye’ - a person who criticizes us is a well wisher. Practice remaining unaffected by criticism. Practice accepting the fact that we have uncountable sins accumulated within us. Don't find faults in others, as that will further pollute our minds.
Any moment our mind is not engaged in God is considered sinful. Hence, bring God into your mind. By doing this, your mind will get purified. Become humble and tolerant. Don't expect respect for yourself. Respect others. The more tolerant you become, the more spiritual power you will have, and you'll get closer to God. These great Saints we hear about such as Tulsidas, Soordas, Meera, and Nanak were just like us at one point. In fact, they were worse than us. But they worked diligently to become good. That's it, they became good through practice. They accepted that they were sinful. They admitted the facts. That is all. Doing so made them very dear to God. If we give God what he desires, He will become happy with us and grace us.
We have received this body to do sadhana and attain God. But, the human body is transient. We do not know when it will be taken away from us. How long will we remain careless? Hence, seriously reflect on this, and stop thinking we are perfect. We must accept reality and increase our level of humility. This will take us closer to God. You have to practice this.
तीन बातें समझनी हैं और तीन काम करने हैं: 1 दीन भाव 2. रूपध्यान 3. श्यामा श्याम का नाम गुण लीलादि संकीर्तन। इन में से हम एक करते हैं - संकीर्तन। किन्तु दो नहीं करते। केवल रसना से संकीर्तन करना ऐसे है जैसे प्राण हीन शरीर। बिना दीनता और रूपध्यान के आँसू नहीं आयेंगे। बिना आँसू का कीर्तन, कीर्तन नहीं है। वो तो तोता रटंत है। इन्द्रियों के वर्क को तो भगवान् नोट ही नहीं करते।
1. दीन भाव - यह भक्ति के विषय में पहला अध्याय है - नम्रता बढ़ाओ। दीनता जितनी अधिक होगी, उतनी जल्दी हम गुरु और भगवान के प्रिय बनेंगे। सबको सम्मान की देने की भावना रखो। अपने में सबसे नीचे की भावना रखो। माया के सब अवगुण हमारे अंदर हैं - अपने को अधम पतित रियलाइज़ करो। सब में भगवान बैठे हैं। किसी के प्रति दुर्भावना न लाओ, दोष न देखो, नीचा न समझो, द्वेष न लाओ। निन्दनीय के प्रति भी निन्दनीय की भावना न हो क्योंकि इससे हमारा मन और गंदा हो जायेगा। इससे भगवान् भी प्रसन्न नहीं होंगे और गुरु भी दुःखी होंगे। मन में भगवान् और गुरु को लाओ, यही दो शुद्ध हैं, इन्हीं से मन शुद्ध होगा। ईश्वरीय जगत में लोकरंजन की बुद्धि न लाओ। लोकरंजन की बुद्धि से बड़े बड़े योगीश्वरों का पतन हो गया।
2. रूपध्यान - मन से भगवान को सामने खड़ा करो। जितना मन भगवान् का रूपध्यान करेगा उतना ही भगवान् के पास जाओगे, भगवान् तुम्हारे पास आएंगे।
3.श्यामा श्याम नाम गुण लीला संकीर्तन - रोकर पुकारो। ये प्रमुख साधना है, और ये दीनता के बिना नहीं होगी। सोते समय सोचो - आज हमने कहाँ अहंकार किया ? कहाँ हमने प्रतिष्ठा की भावना बनाई मन में ? यह मूर्ख मन ही हमें 84 लाख में घुमा रहा है। अहंकार घोर शत्रु है उससे बचकर साधना करो। जिसके प्रति दुर्भावना हो गई है, उससे क्षमा मांगें और मधुर व्यवहार करें - ऐसा व्यवहार करें कि वो झुक जाए। इस तरह साधना करो और फिर देखो दिन प्रतिदिन कितनी उन्नति होगी।
भक्ति में बाधा भगवद्भक्ति के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा है अहंकार। अहंकार नाम का खतरनाक दुश्मन हमें भगवान् के पास नहीं जाने देता। अपने को अच्छा कहलवाने का अभ्यास न करके अच्छा बनने का प्रयास करो।
भगवान् दीनबन्धु हैं, पतित पावन हैं। रियलाइज़ करो कि मैं अनंत जन्मों का पापात्मा हूँ। हमारे अंदर सब दोष हैं, अहंकार करने लायक कोई चीज़ है ही नहीं। इसलिये किसी के वाक्य को फील नहीं करो। निंदक नियरे राखिये - निंदक हमारा हितैषी है। फील नहीं करने का अभ्यास करो। दूसरों में दोष नहीं देखो, उससे आपका मन और गंदा हो जायेगा। जिस क्षण में आपका मन भगवान् में नहीं है, उस क्षण में आप पाप कर रहे हैं ।
इसलिये अपने अंदर भगवान् को लाओ। इससे मन शुद्ध हो जायेगा। सहनशील बनो, विनम्र बनो। अपने लिये मान मत चाहो, दूसरे को मान दो। जितने सहनशील बनोगे, उतनी ही आत्मशक्ति बढ़ेगी, भगवान के पास जाओगे। ये बड़े बड़े महापुरुष जैसे तुलसी, सूर, नानक तुकाराम, सब हमारी तरह ही थे पहले, बल्कि हमसे भी गए गुज़रे थे। लेकिन लग गए अच्छा बनने के लिए। बस, अभ्यास से बन गए - अपने को पतित मान लिया, फैक्ट को एडमिट कर लिया। बस भगवान के प्यारे हो गए। भगवान जिस चीज़ को चाहते हैं, वो हम उनको दें, बस वे खुश हो जाएंगे और कृपा कर देंगे।
भगवान् की प्राप्ति के लिए हमें यह शरीर मिला है। लेकिन यह मानव शरीर नश्वर है, पता नहीं कब छिन जाये। ये लापरवाही कितने दिन चलेगी? इसलिए गंभीरतापूर्वक विचार करके, अपने को अच्छा मानना बंद करके, फैक्ट को एडमिट करके, दीनता बढ़ाना चाहिए। उसी से हम भगवान के समीप जायेंगे। इसका अभ्यास करना होगा।