The word 'seva' means performing actions that please the one we serve, i.e., God and Guru. Only such actions will lead to our welfare. Memorize this formula. It will guide you until God-realization. What WE desire is not true seva. We should offer Him what HE desires. If we seek a seva that makes us happy, that is not service to God - that is service to our own selfish interests. One who thinks in that manner can never become a true servant, even after striving for infinite lifetimes. He will always fail. It is precisely these selfish desires that must be renounced.
'Tat sukh sukhitvaṃ' means to derive happiness from the happiness of God and Guru, which entails aligning our desires with those of God and Guru. We must ensure that God and Guru are never displeased with any of our actions. Give up your selfish desires once and for all. Then, see how swiftly you make progress. By doing this, you will not harbor unfavorable thoughts that lead to spiritual transgressions, called namaparadh. If you are not omniscient and cannot determine what will please Him, simply follow Guru's instructions joyfully with complete faith; this is the condition. The one who follows instructions with unfavorable thoughts undergoes a downfall. In God's realm, words hold no value, only the thoughts of the mind are valued. Following instructions is the preliminary, intermediate, and ultimate goal.
One must be surrendered continuously, not just for an hour or two. The mind is a great enemy; it does its wrongful action the moment you become careless. It begins thinking contrarily and commits namaparadh. Namaparadh is so dangerous that it dries up the seed of God's Divine names and prevents it from sprouting. In other words, it stops the love for God from blossoming. Whatever you think in privacy is stealing from God and Guru. Stealing is a grave sin, and the graveness of any sin is determined based on the personality against whom you commit it. You need the grace of God and Guru, yet you sit in front of them and think against them, which is a grave sin. Still, the Guru keeps hoping that you will reform. So, he keeps explaining philosophy repeatedly to us.
There are two reasons for committing offenses: 1) You have not yet understood the profound meaning of seva, and 2) Even if you have understood the secret of devotional service, you have a formidable attachment to the material world. That attachment makes you commit offenses. You think ""This is my money" Yours? Even this body is not yours! God gave it to you in your mother's womb, and you will have to leave it right here before leaving.
Therefore, repeatedly practice thinking, "I will only think of Guru favorably. I will never entertain unfavorable thoughts". Repeated practicing will make it a habit. Practice is the only solution. You must contemplate, "One day, I'll have to depart from here alone.” How will it feel to be alone then? So far, you have not performed such great deeds that guarantee an exalted destination. Currently, you are attached to the material world. And when you go alone, how will you be taken, and what punishments will you face? That time is not far off. You witness people dying every day.
So, understand the profound secret behind the term seva and practically implement it. It is not impossible. However, if you do not practice, it is indeed impossible; countless births have passed, and more will pass. Therefore, understand the importance of the human body and attain your goal by surrendering with the right sentiments of performing seva.
सेवा शब्द का यह अर्थ है कि हमारी जिस क्रिया से हमारे सेव्य को सुख मिले। वही क्रिया हमारे लिए कल्याणकृत है। इस फॉर्मुला को समझ लो, यह भगवत्प्राप्ति तक काम देगा।
हम जो चाहते हैं वह सेवा नहीं है। जो वे चाहते हैं, वो हम दें। अगर हम कोई ऐसी सेवा चाहें जिससे हमको सुख मिले, वह स्वामी की सेवा नहीं है, वह तो हमारी सेवा है, स्वार्थ है। ऐसा सोचने वाला कभी सेवा नहीं कर सकता, अनंत जन्म मर जाए। स्वार्थ का ही तो त्याग करना है।
तत् सुख सुखित्वं - उनके सुख में सुखी होना, अर्थात् स्वामी की इच्छा में इच्छा रखना। उनको दुःख न होने पाये। अपनी इच्छा को सदा के लिये त्याग दो। इससे विपरीत चिंतन नहीं होगा जिससे नामापराध होता है। अगर अंतर्यामी नहीं हो और नहीं जानते कि वे किस क्रिया से प्रसन्न होंगे, तो गुरु आज्ञा को आंख मूंदकर, प्रसन्नतापूर्वक पालन करो - ये शर्त है। विपरीत 'चिंतन' करके आज्ञा पालन करने वाला गिर जाता है। भगवान् के यहाँ कहने का मूल्य नहीं है, मन के चिंतन का ही मूल्य होता है। आज्ञा पालन ही प्रारंभिक, मध्य और अंतिम लक्ष्य है।
शरणागति निरंतर करनी होगी, एक दो घंटे के लिए नहीं। मन महान् दुश्मन है, ज़रा सी देर की लापरवाही से ही उल्टा सोचकर अपराध करने लगता है। इसलिए पहले बहुत सावधान रहना होगा। नामापराध ऐसी खतरनाक चीज़ है जिसके कारण हरि नाम का बीज अंकुरित नहीं हो पाता, प्रेम नहीं पैदा होता। जो हम लोग प्राइवेट में सोचते हैं, ये गुरु और भगवान् की चोरी है। चोरी बहुत बड़ा पाप है। जिसके प्रति चोरी होती है, उसी के हिसाब से वो बड़ा पाप कहलाता है। हमें भगवान् और गुरु की कृपा चाहिए, उन्हीं के सामने बैठकर उनके खिलाफ सोचना बहुत बड़ा पाप होता है। फिर भी गुरु आशा बनाए रखते हैं कि ये ठीक हो जायेगा। इसलिए वे हमको समझाते रहते हैं।
अपराध के दो कारण हैं - 1) तुमने सेवा के रहस्य को अभी नहीं जाना। 2) अगर तुमने सेवा के रहस्य को जान भी लिया, तो तुम्हारा संसार में ज़बरदस्त अटैचमैंट है। वो अटैचमेंट आपसे अपराध करा लेता है। ये सोचते हो कि ""हमारा पैसा है"" - हमारा? तुम्हारा तो ये शरीर भी नहीं है। ये भगवान् ने माँ के पेट में दिया और ये यहीं धरवा लिया जायेगा।
इसलिए,""हम गुरु के अनुकूल ही चिंतन करेंगे, प्रतिकूल नहीं सोचेंगे"" - इसका बार-बार अभ्यास करना होगा। इससे आदत पड़ जाएगी। अभ्यास ही एक इलाज है। सोचना होगा - ""एक दिन 'अकेले' जाना होगा। कैसा लगेगा जब अकेले जाएँगे?"" और कहाँ जाओगे, ये भी सोचना होगा। अभी तक ऐसा काम तो नहीं किया कि बहुत अच्छी गति मिले। अभी संसार में अटैचमेंट है। और अकेले जब जाओगे तो किस तरह से ले जाए जाओगे और क्या-क्या दंड मिलेगा? वो समय दूर नहीं है। रोज़ प्रत्यक्ष लोगों को मरते हुए देख तो रहे हो।
तो सेवा शब्द का रहस्य समझ कर उसके प्रैक्टिकल पालन का अभ्यास करना चाहिए। असंभव नहीं है। लेकिन, अगर अभ्यास नहीं करोगे तो असंभव ही है, अनंत जन्म बीत चुके हैं और आगे भी बीतेंगे। इसलिए अब मनुष्य देह का महत्त्व समझो और ठीक-ठीक सेवा की भावना से शरणागत होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करो।