A Sadhak's Question - What is the difference between attachment and love?
Shree Maharaj Ji's answer: There is one body and eleven senses - among them are 10 senses, one mind, one intellect, and one soul. These are briefly called the senses, mind, and intellect. In even more concise terms, it is called just the mind. Depending on the state of one's intellect at any point, it will instruct the mind accordingly, and the mind will instruct the senses, which will perform deeds accordingly, and the traveler (soul) will go in that direction.
There are only two paths - one towards the ‘east’ (the realm of God) and one towards the ‘west’ (the realm of maya). The realm of maya consists of the material world, which is of two types: 1. Inert (food, drinks, material possessions, etc.) and 2. Conscious (mother, father, son, husband, etc., who are under the bondage of maya). Getting attached to anything among these is attachment. And its result is wandering in 8.4 million life forms is sorrow, restlessness, dissatisfaction, incompleteness, and bondage. This is poison. Hence, it is condemned. It is called 'preya'.
The second area encompasses God and God-realized Saints meaning God, His names, forms, pastimes, qualities, abodes, and His Saints. If the mind gets attached to any of these, it is called love. This is nectar, with which one attains immortality, Divine bliss, and Divine knowledge forever. This is called 'shreya'.
There is such vast difference between these two; they are totally opposite.
kāma aṃdhatama, prema nirmala bhāskara (Gaurang Mahaprabhu)
Love is like the sun, and attachment is like deep darkness. The human body is rare, even for celestial beings and (as humans), we undergo so much sorrow even with food cooked at home, then what will happen if they become dogs, cats, or donkeys. Consider how much sorrow they must endure. Animals wander all day to fill their stomachs, have no home to stay in, and no protection from cold, heat, or rain. There are no arrangements for food either. They bear so much sorrow, yet we catch them and use them for our own pleasure (like horses, bulls, cows, buffaloes, etc.). To fulfill selfish motives, humans even beat them with sticks. We have also gone through these life forms millions of times, and if we do not practice devotion now, we will have to attain those same life forms again. Think about the amount of sorrow that it entails.
Loving God is no different than how we love someone in the world. The way Laila and Majnu (like Romeo and Juliet) loved each other, so did Meera and Shree Krishna, and so did the Gopis and Shree Krishna. They also have the same senses. We will reap worldly fruits if we offer our body, mind, and soul to the world. If we offer them to God and Saints, we will transcend maya and attain Divine bliss and Divine knowledge. The form of surrender is one and the same. The only difference is the result. We will get whatever is in possession of the one whom we love; we will get whatever power our beloved has. It is that simple. And we will definitely love someone and will have to love someone, if not today, then tomorrow. No one can escape this. We will have to attain the one whom we love, after death.
Therefore , the one who chooses 'shreya', i.e., loves the realm of God, attains the ultimate goal. The result of it is Divine bliss.
Question - What is Nāmāparādh?
Shree Maharaj Ji's answer: Various spiritual masters have given different explanations of nāmāparādh, which is a grave spiritual transgression. But primarily, nāmāparādh is to have ill feelings towards Radha-Krishna, Their names, forms, qualities, abodes, and Saints. It is not necessary to speak ill of Them, merely ‘thinking’ ill of them is considered a transgression. For example, thinking against God and His Saints and thinking that one name of God to be better than another fall under nāmāparādh. Among these, the primary transgression is to have ill feelings about a Saint.
viṣṇu sthāne kṛtaṃ pāpaṃ guru sthāne pramucyate
The Guru can forgive an offense committed against God. But, an offense committed against the Guru will not be forgiven by God. For example, God sent His sudarshan chakra to chase after the Brahmin sage, Durvasa, for the sake of His devotee Ambarish.
We neither get to see God in the beginning nor interact with Him. We only get the association of a Saint, and that is where we commit sin. We apply our material intellect to a Saint's outward appearance and behavior and stealthily commit sins and, at the same time, bow down at their feet. God remains seated within us and keeps noting down our thoughts. He will not grace nor forgive if one thinks ill of His Devotees. When we are incapable of understanding our own parents, children, or spouse, how can we claim to understand God and His Saints?
jāra citte kṛṣṇa premā karaye udaya, tāra vākya kriyā mudrā vijñeya na bujhaya (Gaurang Mahaprabhu)
No one can understand a saint's words, actions, and expressions. Even the greatest of gyanis become confused. A Saint may embrace one person but grace another. And the one he embraces thinks he is being bestowed special grace. But it is not so. A Saint gives us the fruit based on the extent to which we are surrendered from within. Always remember this formula. He may not even touch you, but he is with you from within because you are with him. In our infinite lifetimes, we did satsang, kirtan, and other great ways of devotion infinite times. Yet we lost all our earnings because of doing nāmāparādh.
hena kṛṣṇanāma yadi laya bahu bāra। tabhūyadi prema nahe, nahe aśrudhāra॥ tabai jānibe aparādha āche pracura। hena kṛṣṇanāma bīja na haya aṃkura॥
Because of nāmāparādh, the seed of Shree Krishna's name withers away and does not sprout. Nāmāparādh is the biggest of all sins. We should avoid it by all means.
साधक का प्रश्न - आसक्ति और प्रेम में क्या अंतर है ?
श्री महाराज जी का उत्तर - एक शरीर और ग्यारह इन्द्रियाँ - उस में दस इन्द्रियाँ, एक मन, एक बुद्धि, एक आत्मा। इसी को संक्षेप में इन्द्रिय-मन-बुद्धि कहते हैं। इसी को और संक्षेप में मन-बुद्धि कहते हैं। और संक्षेप में कहें तो केवल मन। जब जैसी बुद्धि जिसकी होगी, वैसे ही वो मन को कहेगा, और मन इन्द्रियों को कहेगा, इन्द्रियाँ उसी प्रकार कर्म करेंगी और यात्री उसी ओर जाएगा।
जाने के दो ही मार्ग हैं - एक पूरब (भगवान् का एरिया), एक पश्चिम (माया का एरिया)। माया के एरिया में दो तरह का संसार होता है - जड़ (खाने पीने का सामान आदि) और चेतन (माँ बाप बेटा पति आदि जो, मायाधीन हैं) - इनमें कहीं भी मन का अटैचमेंट हुआ, किसी भी भाव से हो - वो आसक्ति है। और इसका फल 84 लाख योनियों में भटकना, दुःख, अशांति, अतृप्ति, अपूर्णता, एवं कर्म बंधन। ये ज़हर है। इसलिए इसकी निंदा की गई है। इसको प्रेय कहते हैं।
दूसरा एरिया - भगवान् और भगवान् को प्राप्त कर लेने वाला संत, महापुरुष। भगवान्, उनका नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और उनके संत, इनमें कहीं भी अगर मन का अटैचमेंट हो जाता है, उसको प्रेम कहते हैं। ये अमृत है, इससे अमरत्व, आनंद, ज्ञान सब सदा को मिलेगा। इसको श्रेय कहते हैं।
इन दोनों में इतना अंतर है कि ये एकदम विरोधी हैं क्योंकिं दोनों के फल विरोधी हैं
काम अंधतम, प्रेम निर्मल भास्कर (गौरांग महाप्रभु)।
प्रेम सूर्य के समान है और आसक्ति घोर अंधकार के समान है। मनुष्य शरीर तो देव दुर्लभ है। घर में पका पकाया खाना मिलने पर भी इतना दुःख है, तो कुत्ते बिल्ली गधे बनेंगे क्या हाल होगा - उनको कितना दुःख मिलता होगा। पेट भरने के लिए जानवर सारा दिन घूमते हैं, न उनके रहने का घर है, न सर्दी गर्मी बरसात से बचने का कोई उपाय है। कल का क्या कहें आज के लिए भी खाने का भी कोई प्रबंध नहीं है। इतना दुःख भोग रहे हैं, फिर भी उनको पकड़कर अपने सुख के लिए हम उनका प्रयोग करते हैं (घोड़ा, बैल, गाय, भैंस आदि)। स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मनुष्य उनपर डंडे मारता है। हम भी इन योनियों में लाख बार गए हैं और अभी भक्ति नहीं करेंगे तो उन्ही योनियों में जाना पड़ेगा। वो दुःख कितना होगा?
भगवान् से प्यार करने के तरीके में कोई अंतर नहीं है। जैसे लैला मजनू प्यार करते थे, वैसे ही मीरा-श्री कृष्ण, गोपियाँ-श्रीकृष्ण प्यार करते हैं। उनके पास भी वही इन्द्रियाँ हैं जो हमारे पास हैं। अगर हमने अपना तन-मन-प्राण संसार को दिया तो संसार का फल भोगेंगे। भगवान और संत को दिया तो माया से परे हो जाएँगे, दिव्यानंद और दिव्य ज्ञान प्राप्त करेंगे। समर्पण का स्वरूप एक है। फल में अंतर इसलिए है, कि हम जिससे प्यार कर रहे हैं उसके पास जो कुछ होगा, जो शक्ति उसके पास होगी, वो हमको मिलेगी, बस सीधी सी बात है। और हम प्यार तो करेंगे ही, कहीं न कहीं करना पड़ेगा, आज नहीं तो कल - कोई बच नहीं सकता। हम जिससे प्यार करेंगे, मरने के बाद उसी की प्राप्ति होगी।
तो इसलिए - श्रेयः आददानस्य साधु भवति। जो श्रेय को अपनाता है, यानी भगवान् के एरिया से प्यार करता है, उसका कल्याण होता है। उसका परिणाम आनंद है।
नामापराध क्या है ?
नामापराध के विषय में कई आचार्यों ने कई प्रकार से लिखा है। लेकिन प्रमुख रूप से नामापराध माने राधा-कृष्ण, उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम और संत इतने में कहीं भी 'मन' से दुर्भावना ना करना। मुख से बोलना आवश्यक नहीं है, केवल मन से सोचना नामापराध है। जैसे भगवान् और उनके संत के खिलाफ सोचना, उनके नाम में छोटा-बड़ा मानना आदि। इसमें भी प्रमुख है, महापुरुष के प्रति दुर्भावना।
विष्णु स्थाने कृतं पापं गुरु स्थाने प्रमुच्यते
भगवान के प्रति अपराध हो जाये, तो गुरु क्षमा कर सकते हैं। लेकिन, गुरु स्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति। यानी गुरु के प्रति किया हुआ अपराध भगवान् क्षमा नहीं कर सकते। उदाहरण - अम्बरीष के लिए भगवान् ने ब्राह्मण ऋषि दुर्वासा के पीछे चक्र चला दिया।
भगवान् का तो दर्शन पहले नहीं होता, और वे हमारे साथ कोई व्यवहार भी नहीं करते हैं। महापुरुष से ही हमारा संपर्क होता है और हम वहीं अपराध करते हैं। महापुरुष को देखते ही हम उनके बाहरी व्यवहार और वेशभूषा में अपनी मायिक बुद्धि लगाकर चोरी-चोरी अपराध करते हैं और साथ ही दण्डवत प्रणाम भी करते जाते हैं। भगवान् हमारे भीतर बैठकर हमारे विचार नोट करते रहते हैं। उनके भक्त के खिलाफ सोचने से अनंतकोटि भक्ति करने पर भी भगवान् क्षमा नहीं करेंगे, कृपा नहीं करेंगे। जब हम संसार के रिश्तों-नातों को ही नहीं समझ सकते, तो महापुरुष और भगवान् को समझने का कैसे दावा कर सकते हैं?
जार चित्ते कृष्ण प्रेमा करये उदय, तार वाक्य क्रिया मुद्रा विज्ञेय न बुझय (गौरांग महाप्रभु)
महापुरुष के वाक्य, क्रिया और मुद्रा (एक्शन) को कोई नहीं समझ सकता। बड़े-बड़े ज्ञानी चक्कर खा जाते हैं। वे कृपा किसी और पर करते हैं और हृदय से किसी और को चिपटा रहे हैं। जिसको चिपटा रहे हैं, वो समझता है हमारे ऊपर विशेष कृपा है। लेकिन ऐसा नहीं है। महापुरुष हमारे भीतर की शरणागति के अनुसार ही हमें फल देंगे - ये फॉर्मूला हमेशा याद रखो। वो चाहे तुमको कभी छूएँ भी नहीं, भीतर से वे हमेशा तुम्हारे साथ हैं, क्योंकि तुम उनके साथ हो। अनंत जन्मों में अनंत कीर्तन सत्संग आदि बड़े-बड़े साधन करने के बाद भी हम नामापराध करके सब गँवा देते हैं।
हेन कृष्णनाम यदि लय बहु बार। तभूयदि प्रेम नहे, नहे अश्रुधार॥ तबै जानिबे अपराध आछे प्रचुर। हेन कृष्णनाम बीज न हय अंकुर॥
नामापराध से ही श्रीकृष्ण नाम का बीज अंकुरित नहीं होता, मुरझा जाता है। नामापराध सबसे बड़ा पाप है, इसलिए उससे बचना चाहिए।