Question - How can we progress swiftly on the Divine path?
Shree Maharaj Ji’s Answer: The same way you swiftly cover ground in any field. Wherever you dedicate more time, there you will advance speedily; now you know what needs to be done (devotion), but you do not invest the time. You spend one or two hours in devotional practice and the rest of the time contemplating worldly matters – this is a slow pace. Just as fire is created by 'continuously' rubbing two sticks of Arani tree, similarly, by constantly engaging the mind in the realm of God, we will move forward quickly.
Question: What should one do if devotional practice does not seem to be going well and disappointment arises?
Shree Maharaj Ji’s Answer: Why did disappointment arise in the first place? Would you abandon the path of God just because of despair? How will you attain bliss then? Disappointment would be warranted only if there was some other way. But there is no path other than devotion. If you go slow, you will reach late; if you go swiftly, you will get there sooner. But you will have to reach there either way.
It is true that even after doing very good Sadhana, one should think that Sadhana is not going well because otherwise Shyamsundar would have appeared before me! But having this feeling does not mean despair. Practice is essential. It will take time
Whispering Guru mantra in the ear is deception. Ask those who practice this - what is unique about your mantra? If they say that it has some special power, then as soon as the mantra is uttered in the ear, one should attain God and experience infinite bliss. So, it is mere deception.
First, one has to practice devotion, which will purify the mind. Then, we will not be affected even if one hurls a thousand abuses at us. Only good thoughts will come when the mind is purified, but maya will still remain. Then, the Guru will make the mind Divine using the Divine power of Swaroop shakti. Then, the veil of maya will be removed, and Divine love will enter the mind - this is what is called deeksha.
Question: Why is that situation not coming yet where we do not get angry over minor issues?
Shree Maharaj Ji’s Answer: Madhusudan Saraswati, a devotee of God, circumambulated (parikrama) the Govardhan hill in Vrindavan but could not meet Shree Krishna. Then he continued doing parikrama for a long, long time. Then, when he finally had the vision of God, he turned his back towards Him angrily and asked why He had taken so long to come. Then Shree Krishna showed him the mountain of his sins and said, "You had so many sins! I could only come when they were all burnt to ashes, right?"
We have accumulated sins from countless births. It will take time to wash away the dirt of infinite lives. You are also not doing the Sadhana properly - merely chanting the words of kirtan and doing arti without doing roopdhyan will not help. How many tears did you shed? God is always seated in our hearts and is also omnipresent - we heard this and read this too, but do not accept this even for an hour out of 24 hours. We still have feelings of privacy and think no one knows what I am thinking. Admonish your mind and accept your shortcomings. Shed tears of love and yearning for God! Feel the presence of God with you all the time! We were careless about these things whenever we received this rare human body. The mind remained attached to the material world. If you keep doing the Sadhana correctly and continuously, then you will definitely achieve your goal one day.
Question: Is it better to do sadhana while sitting in one place or to serve with the physical senses?
Shree Maharaj Ji’s Answer: The very meaning of the word bhakti is service. The Sanskrit root "bhaj" means to serve. Even in the nine types of devotion (navadha bhakti), service (seva) is included. So serve with the senses, but you should serve with the loving feeling that we are performing this seva for God and our Guru.
Only highly elevated devotees can sit and do roopdhyhan for a long time. Beginners cannot do this. If you try to meditate on God's form for 10 minutes with your eyes closed now, sleep overcomes you. The mind will tell you to sleep, and you fall asleep. Even yogis struggle to conquer the mind. However, when you are engaged in seva, it involves physical activity. So you don't feel sleepy, and also practice devotion while serving. Even after attaining God, the devotee asks to serve God.
Initially, a sadhak serves the Guru, then in Golok, he gets to serve both the Guru and God. So seva is the best, but ensure your mind is engaged while doing the seva.
Question: Can destiny be averted?
Shree Maharaj Ji’s Answer: Saints and God are capable of doing anything - they can do something, not do something, or do something contrary to logic, as per they desire. However, God and Saints happily go through their destiny. They don't experience the pain of destiny, and they do not work against the rules of God. There are many examples of this such as Lord Ram's exile, Pandavas' exile, etc.
When we go through the suffering of destiny, we should accept God's grace in it, thinking that now that we have suffered the punishment, that sin is finished. Hence we should go through the difficulties of destiny gladly by accepting them as God's grace. They are a result of our own past actions. This can be done by looking at people who are below us in the material world. If one keeps looking at those ahead of them in the material realm, even someone at the level of Indra will be unhappy since he yearns for a seat that is ahead of him, which Brahma holds.
- ईश्वरीय मार्ग में हम तेज़ी से कैसे चलेंगे ?
किसी भी मार्ग में जैसे तेज़ी से चलते हो, उसी तरह। जिस सब्जेक्ट में अधिक समय देंगे, वहां तेज़ी से चलेंगे। अब क्या करना है (भक्ति) ये मालूम हो गया। लेकिन समय नहीं देते। एक-दो घंटे साधना में दिया बाकी समय संसार का चिंतन करते हैं - ये धीमी चाल है। जैसे अरणी की लकड़ी को 'लगातार' रगड़ने से ही आग पैदा होती है, वैसे ही लगातार भगवद्विषय में मन को लगाने से जल्दी आगे बढ़ेंगे।
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- साधना ठीक नहीं हो रही है, यह सोचकर निराशा आ जाती है। ऐसी अवस्था में क्या करें?
निराशा क्यों आई? अगर निराशा आई तो क्या भगवद्विषय को छोड़ दोगे? तो आनंदप्राप्ति कैसे होगी? निराशा तो तब आवे जब और कोई रास्ता हो। भक्ति के अलावा और कोई मार्ग तो है नहीं। धीमे चलोगे तो देर से पहुंचोगे, तेज़ चलोगे तो जल्दी पहुंचोगे। पहुँचना तो है ही वहाँ।
ये बात तो ठीक है कि बड़ी अच्छी साधना करने पर भी यही सोचना चाहिए कि साधना ठीक नहीं हो रही है, नहीं तो श्यामसुन्दर हमारे सामने प्रकट हो जाते। लेकिन इस फीलिंग होने का मतलब निराशा नहीं है।
अभ्यास तो करना होगा, समय तो लगेगा।
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कान में गुरु मंत्र फूँकना सब धोखा है। जो ऐसे करते हैं, उनसे पूछो आपके मंत्र में क्या खास बात है? अगर वो ये कहें कि इसमें पावर है, सिद्ध है। तो कान में मंत्र देते ही तुरंत दिव्यानंद की फीलिंग होनी चाहिए क्योंकि तत्क्षण भगवत्प्राप्ति हो जाती। तो पहले भक्ति करनी होगी, जिससे अंतःकरण शुद्ध होगा। तब कोई एक हज़ार गाली भी देगा तो हम नॉर्मल रहेंगे। जब अन्तःकरण शुद्ध होगा तब हमारे मन में अच्छे-अच्छे विचार आएँगे, लेकिन तब भी माया रहेगी। फिर गुरु स्वरूप शक्ति के द्वारा अंतःकरण को दिव्य बनाएँगे, तब माया जाएगी और दिव्य प्रेम उसके अंदर आएगा - इसी को दीक्षा कहते हैं।
साधक का प्रश्न - अभी वो स्थिति क्यों नहीं बन पा रही है कि छोटी छोटी बातों पर हमको क्रोध न आए?
श्री महाराज जी का उत्तर - मधुसूदन सरस्वती ने वृन्दावन में गोवर्धन कि परिक्रमा की लेकिन भगवान् नहीं मिले। फिर बहुत दिन तक परिक्रमा करते रहे, तब फिर भगवान् के दर्शन हुए तो मधुसूदन ने उनसे रूठ कर पीठ कर लिया, कि तुम इतनी देर में क्यों आए। तब भगवान् ने उनके पापों का पहाड़ दिखाया और कहा कि "तुम्हारे इतने पाप थे। ये सब जलकर भस्म हो जाएँ, तब तो मैं आऊँ?"
तो हमारे पास अनंत जन्मों के पाप जमा है। अनंत जन्मों के जमा हए मैल को धोने में समय लगेगा। और साधना भी सही-सही नहीं कर रहे हो- बिना रूपध्यान किए केवल मुँह से कीर्तन करके आरती करने से काम नहीं बनेगा। आँसू कितने बहाए? भगवान् हमारे अंतःकरण में नित्य रहते हैं, और वे सर्वव्यापक भी हैं - ये सुना है, पढ़ा है, लेकिन चौबीस घंटे में एक घंटे के लिए भी नहीं मानते। हम प्राइवेसी रखते हैं और ये सोचते हैं कि हम जो सोच रहे हैं कोई नहीं जानता। अपने आपको धिक्कारो, अपनी कमी मानो। आँसू बहाओ। हर समय, हर जगह महसूस करो कि भगवान् हमारे साथ हैं। अनंत बार जब भी मानव देह मिला हमने यही लापरवाही की। संसार में आसक्त रहे। सही साधना लगातार करते रहोगे तो एक दिन लक्ष्य ज़रूर प्राप्त होगा।
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प्रश्न - एक जगह बैठकर साधना करना श्रेष्ठ है या इन्द्रियों से सेवा करना?
भक्ति शब्द का अर्थ ही है सेवा - संस्कृत में 'भज्' धातु का अर्थ सेवा होता है। प्रारंभ से ही नवधा भक्ति में सेवा को मिला रखा है - इन्द्रियों से भी सेवा करो, लेकिन मन से भी अवश्य यह भावना बनी रहे, कि हम ये सेवा भगवान् और गुरु के निमित्त कर रहे हैं।
केवल रूपध्यान उच्च कोटि का साधक तो कर सकता है - लेकिन पहले पहल नहीं कर सकता। 10 मिनट रूपध्यान करने पर नींद आ जाती है। मन कहेगा सो जाओ और वो सो जाता है। मन पर विजय पाना योगियों के लिए भी असंभव है । लेकिन जब हम सेवा करते हैं तो एक तो सेवा फिज़िकल होती है और दूसरा नींद भी नहीं आती और उसमें साधना अपने आप बनती जाती है। भगवत्प्राप्ति के बाद भी भक्त भगवान् की सेवा माँगता है। प्रारम्भ में गुरु सेवा होती है फिर गोलोक में गुरु और भगवान् दोनों की सेवा होती है। तो सेवा सर्वश्रेष्ठ है लेकिन सेवा में मन का संयोग हो इसका पूरा ध्यान रखें।
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क्या प्रारब्ध काटा जा सकता है ?
भगवान् और महापुरुष सर्वसमर्थ हैं - कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ हैं। जो चाहे करे, जो चाहे न करे, जो चाहे उल्टा करे। लेकिन वे भगवान् के नियम के विरुद्ध वे कार्य नहीं करते। वे अपने प्रारब्ध (साधन सिद्ध) को ही नहीं काटते तो औरों की क्या कहना। भगवान और महापुरुष प्रारब्ध को सहर्ष भोग लेते हैं क्योंकि उन्हें प्रारब्ध के दुख का अनुभव नहीं होता है। कई उदाहरण जैसे भगवान राम का वनवास, पांडव का वनवास आदि।
हम लोगों को भी प्रारब्ध को भगवान् का प्रसाद मानकर सहर्ष भोगना चाहिये। वह हमारे ही कर्म का परिणाम है। प्रारब्ध भोगने में हमें भगवान् की कृपा माननी चाहिए कि हमने वो प्रारब्ध भोग लिया, तो अब वो पाप खतम हुआ। संसार में अपने से नीचे को देखोगे तो अधिक दुख नहीं होगा। अपने से आगे देखने पर तो इंद्र भी दुखी होता है।